Sunday, July 6, 2008

Kavita

ठीक तुम्हारी आंखों के पीछे और कानो के बीच

संवेदनाओ की एक दुखती गाँठ है

जो चोट की हर टीस के साथ

एक कविता जनती है ।

उसकी स्याही हर बूँद

तुम्हारे खून की सी नमकीन महकती है।

बहुत पहले एक समझदार आदमी ने मुझसे कहा था-

"आदमी कविता को नही, कविता आदमी को लिखती है,

और फिर आदमखोर की लपलपाती जीभ से उसे खाती है."

फिर भी अनचाही गाठों की विलासिता के चलते

हम उसे सहते हैं

क्यूंकि कुछ देर ही सही

इसकी जाँघों के बीच घुसकर

अपने चेहरे में रहते है ।

बर्दाश्त की उस हद पर

शायद हम सब सहमत है-

मासिकधर्म से भीगा हर चिथडा

गर्भाशय की असफलता पर

एक दर्द डूबा मजाक है,

और कविता ...

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